

Supreme Court – सीआरपीसी की धारा 156 (3) के अनुसार FIR दर्ज करने की मांग वाली अर्जी महज देरी के आधार पर खारिज नहीं की जा सकती: कलकत्ता हाईकोर्ट कलकत्ता High Court ने कहा है कि एक मजिस्ट्रेट केवल शिकायत दर्ज करने में विलम्ब के आधार पर आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की Section – 156 (3) के तहत आवेदन खारिज नहीं कर सकता है।
Supreme Court – कलकत्ता उच्च न्यायालय Says कि एक मजिस्ट्रेट Onely शिकायत दर्ज करने में विलंब के आधार पर आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CRPC ) की Section – 156 (3) के अनुसार आवेदन खारिज नहीं कर सकता है।
जस्टिस विवेक चौधरी ने कहा कि – मजिस्ट्रेट यह निर्णय नहीं निकाल सकता कि कंप्लेन दर्ज करने में देरी के कारण यह अनुमान ,आभास लगाया जा सकता है कि आवेदन को ज्यादा देरी के आधार पर प्राथमिकी रिपोर्ट के रूप में नहीं माना जा सकता है।
Court ने कहा कि ‘ललिता कुमारी’ वाद मामले में Supreme Court के फैसले में संहिता की Section 156 (3) के अनुसार एक आवेदन को प्रथम जांच या FIR के समान मानते हुए जांच के लिए पुलिस प्राधिकरण को भेजे व बिना देरी के आधार पर फेंकने का कोई निर्देश या आदेश नहीं है। ( Section 156 ( 3 )
Supreme Court – इस वाद मामले में, मजिस्ट्रेट द्वारा ने मुख्य रूप से इस आधार पर संहिता की Section 156 (3) के अनुसार आवेदन खारिज कर दिया था कि वह आपराधिक प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्राथमिकी रिपोर्ट की अर्जी में असामान्य देरी हुई थी।
मजिस्ट्रेट ने मामले पर उल्लेख किया कि कथित घटना 29 / 09 / 2018 को हुई थी और वह याचिकाकर्ता ने लगभग दो वर्ष बीत जाने के बाद 12 / 12 2020 को शिकायत दर्ज कराई थी व और इस प्रकार की शिकायत दर्ज करने में देरी का स्पष्टीकरण संतोषजनक व सही और ठोस नहीं था ( Studygram )
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Supre Court – कोर्ट के सामने यह तर्क दिया गया था कि ‘ललिता कुमारी (सुप्रा)’ एक मामले में Supreme Court का Order कभी भी मजिस्ट्रेट को देरी के आधार पर संहिता की Section 156 (3) के अनुसार एक आवेदन को सीधे खारिज ( डिस्पोजल ) करने का अधिकार नहीं देता है।
( Section 156 ( 3 ) – तथा उसी से सहमत होकर, न्यायलय ने कहा की यह कहने की जरुरत नहीं है कि अधिकांश बार कंप्लेन दर्ज करने में अस्पष्टीकृत देरी अभियोजन पक्ष के लिए ज्यादा घातक साबित होती है। व साथ ही, Supreme न्यायालय के कई ऑर्डर हैं जहां यह माना लिया जाता है कि यह यौन उत्पीड़न और बलात्कार के मामले में प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज करने में देरी एक लिखित शिकायत को खारिज ( डिस्पोजल ) करने का आधार नहीं है।
( Best Studygram ) और प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज करने में देरी का ज्यादा प्रमुख महत्व नहीं है BUT पीड़िता को खुलकर सामने आने व और रूढ़िवादी सामाजिक परिवेश में स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए हिम्मत जुटाना पड़ता है। व बलात्कार के मामलों में, अभियोक्ता द्वारा सभी सिचुएशन में प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज करने में देरी का कोई प्रमुख महत्व नहीं है।
Supreme Court – तथा कभी-कभी सामाजिक कलंक व अपमान का डर और कभी-कभी आरोपी व्यक्तियों से खतरा व डर कि उस पर और अधिक हमले किए जा सकते हैं, व और धनी, ज्यादा प्रभावशाली और ताकतवार आदमी के खिलाफ कानूनी जंग शुरू करने के लिए शारीरिक व आंतरिक शक्ति की व अनुपस्थिति कम्प्लेन दर्ज करने में देरी के कारण हैं।
Supreme Court – अदालत ने ‘मुकुल रॉय V/ S पश्चिम बंगाल सरकार (2019) Cri.LJ 245 (Cal)’ में सिंगल पीठ के फैसले से भी असहमति जताई, जिसमें कोर्ट द्वारा कहा गया था कि जिसमे मजिस्ट्रेट आरोपों की सच्चाई व सत्यता को सत्यापित करेगा, उक्त मामले में आरोप की प्रकृति रिकॉर्ड पर है।
“माननीय जस्टिस के प्रति पूरे सम्मान के साथ, उक्त दिशा निर्देश ‘ललिता कुमारी’ मामले के पैरा 120.5 में माननीय उच्च न्यायलय द्वारा दिए गए निर्देश के अनुरूप नहीं है। माननीय सिंगल न्यायाधीश स्पष्ट रूप से निर्देश देते हैं कि शुरू की जांच का दायरा प्राप्त जानकारी की सत्यता या असत्यता सत्यापित करने के लिए नहीं है, यह बल्कि केवल यह पता लगाने के लिए है कि क्या मिली जानकारी किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है। ( Studygram )
Section 156 ( 3 ) Crpc in Hindi – यह की जब पुलिस अधिकारी संज्ञेय अपराध के लिए रजिस्ट्रेशन से पहले प्रथम जांच मामले में सत्यता को सत्यापित करने का हकदार नहीं है, यह तो एक मजिस्ट्रेट CRPC की Section 156 (3) के अनुसार आवेदन में निहित आरोपों की सच्चाई और सत्यता को कैसे सत्यापित कर पाएगा? उपरोक्त के जानते व देखते हुए और ललिता कुमारी के ऑर्डर के अनुरूप, यह न्यायलय मानती है कि संहिता की Section 156(3) के तहत एक आवेदन पर विचार करते समय मुकुल रॉय मामले का सब-पैराग्राफ (4) मजिस्ट्रेट द्वारा पालन किया जाने वाला सही आदेश व दिशानिर्देश नहीं है।”
Section 156 ( 3 ) in Hindi – Court ने कहा कि संहिता की Section 156(3) के तहत आवेदन मिलने पर मजिस्ट्रेट के लिए दो वैकल्पिक कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुला रहता है। 1. मजिस्ट्रेट संहिता की Section – 190 के तहत संज्ञान लेने से पहले सीआरपीसी की Section 156 (3) के तहत पुलिस द्वारा जांच के लिए कह सकता है। 2. और यदि मजिस्ट्रेट ठीक लगे तो वह शिकायत की याचिका पर संज्ञान ले सकता है
तथा संहिता की Section – 202 में निहित कानूनी प्रक्रिया का पालन कर सकता है। और मजिस्ट्रेट के बर्खास्तगी ऑर्डर को रद्द करते हुए अदालत ने कहा की यदि इससे पहले कि मैं अलग हो जाऊं, मैं प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज करने में देरी के प्रभाव का जिक्र करने के लिए उत्सुक हूं। और एक आपराधिक मामले में FIR एक संज्ञेय अपराध की शुरुआत का सबसे पहला वाक्य है। व यह सबूत का एक वास्तविक हिस्सा नहीं है तथा और इसे परीक्षण में या तो पुष्टि या विरोधाभास के लिए प्रयोग किया जा सकता है। और शिकायत दर्ज करने में देरी की घटना के झूठे विवरण, व अलंकरण और भौतिक तथ्य के दमन के आधार पर माना जाता है। ( Best Studygram )
और ऐसे सभी बिंदुओं का निर्णय माननीय न्यायालय द्वारा किसी मामले की सुनवाई के समय किया जाना है। और संहिता की Section 156(3) के तहत आवेदन पर विचार करते समय मजिस्ट्रेट कम्प्लेन दर्ज करने में देरी के प्रभाव का फैसला नहीं कर सकता है। ललिता कुमारी वाद मामले में दिया गया निर्णय पुलिस प्राधिकरण को शिकायत दर्ज करने में अत्यधिक देरी पर प्रारंभिक जांच का अधिकार ( Rights ) देती है।
Supreme Court ‘ललिता कुमारी’ मामले में कभी भी यह दिशा निर्देश नहीं देता कि वह किसी आवेदन को प्रारंभिक जांच या प्राथमिकी सोचकर जांच के लिए पुलिस अधिकारी प्राधिकारी को भेजे बिना देरी के आधार पर संहिता की Section 156(3) के तहत खारिज कर दें।